गठबंधन की गांठें सुलझाने में जुटी बीजेपी, बोर्डों की कुर्सियों पर चलेगा संतुलन का खेल

गठबंधन की गांठें सुलझाने में जुटी बीजेपी, बोर्डों की कुर्सियों पर चलेगा संतुलन का खेल


 गठबंधन की गांठें सुलझाने में जुटी बीजेपी, बोर्डों की कुर्सियों पर चलेगा संतुलन का खेल

संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की सत्ता में भाजपा की पकड़ चाहे जितनी मजबूत दिखे, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद बदले सियासी समीकरणों ने पार्टी को भी अपनी रणनीति में बदलाव करने पर मजबूर कर दिया है। यूपी जैसे बड़े राज्य में सहयोगी दलों की भागीदारी अब केवल चुनावी घोषणापत्र तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अब वे सरकार में 'हिस्सेदारी' का ठोस प्रमाण भी मांग रहे हैं। ऐसे में भाजपा नेतृत्व ने इन दलों की मांगों को नियंत्रित करने और उन्हें सम्मानजनक स्थिति देने के लिए बोर्ड, निगम और आयोगों की राजनीति को नया रूप देने का निर्णय लिया है।यह रणनीति भले दिखने में एक 'सामान्य सत्ता समायोजन' हो, लेकिन इसके पीछे 2027 के विधानसभा चुनाव और उससे पहले होने वाले पंचायत चुनाव, निकाय चुनाव और संभवत: बिहार चुनाव की बड़ी तैयारी छिपी है। भाजपा जानती है कि यदि समय रहते सहयोगियों की अपेक्षाएं नहीं पूरी की गईं, तो गठबंधन की नाव चुनावी समंदर में डगमगा सकती है।

सबसे पहले बात करते हैं सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर की। भाजपा ने उन्हें योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री पद, एमएलसी और लोकसभा टिकट जैसे कई अवसर दिए। इसके बावजूद राजभर का लगातार बयानबाज़ी करना और बिहार विधानसभा चुनाव में 29 सीटों पर लड़ने का ऐलान करना भाजपा नेतृत्व के लिए चिंता का कारण बन चुका है। सूत्रों के मुताबिक राजभर ने बिहार के लिए तीन आयोगों या निगमों में पद की मांग की है और यूपी में भी कुछ नाम सुझाए हैं। भाजपा इन मांगों पर गंभीरता से विचार कर रही है, क्योंकि पार्टी जानती है कि ओबीसी राजनीति के इस सशक्त चेहरे को नजरअंदाज करना महंगा पड़ सकता है।सुभासपा को समायोजित करने की रणनीति सिर्फ राजभर को संतुष्ट करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे बड़ा सामाजिक समीकरण भी छिपा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में सुभासपा का प्रभाव लगातार बढ़ा है और भाजपा की जीत का गणित इन क्षेत्रों में ओबीसी मतदाताओं पर ही निर्भर करता है। ऐसे में अगर राजभर को सम्मानजनक भागीदारी मिलती है, तो भाजपा को इसका लाभ सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि बिहार में भी मिलेगा, जहां आगामी चुनाव की तैयारी जोरों पर है।

दूसरी ओर, निषाद पार्टी की मांगें भी कम नहीं हैं। पार्टी अध्यक्ष संजय निषाद खुद राज्य सरकार में मंत्री हैं, लेकिन उनकी पार्टी यह चाहती है कि उनके कार्यकर्ताओं को भी सरकारी बोर्डों और निगमों में जगह मिले। भाजपा ने इस दिशा में हरी झंडी तो दी है, लेकिन एक अहम शर्त भी रखी है कि ये पद केवल परिवार के लोगों को न देकर उन कार्यकर्ताओं को दिए जाएं जो जमीनी स्तर पर पार्टी और गठबंधन के लिए काम कर रहे हैं। भाजपा का यह रुख संगठन में अनुशासन बनाए रखने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।भाजपा को यह भलीभांति समझ है कि यदि सहयोगी दलों को सत्ता की हिस्सेदारी नहीं दी गई, तो वे विपक्ष के संपर्क में जा सकते हैं। खासकर उस परिस्थिति में जब कांग्रेस और सपा जैसे दल गैर-भाजपा गठबंधन को पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा ने सभी सहयोगी दलों को एक सीमित लेकिन प्रभावी भागीदारी देने की योजना बनाई है, जिससे वे संतुष्ट रहें और गठबंधन में टिके रहें।

अपना दल (एस) और आरएलडी की स्थिति भी भाजपा के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है। अपना दल को कुर्मी मतदाताओं के बीच भाजपा के भरोसेमंद सहयोगी के रूप में देखा जाता है, जबकि आरएलडी को जाट मतदाताओं के बीच पकड़ हासिल है। यूपी में आरएलडी को तीन बोर्ड या आयोगों में पद देने की बात लगभग तय मानी जा रही है। यह फैसला पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की पकड़ मजबूत करने की दिशा में अहम कड़ी हो सकता है, खासकर तब जब किसान आंदोलन के बाद पार्टी को वहां राजनीतिक नुकसान हुआ है।बोर्ड और आयोगों की नियुक्तियां जहां एक ओर सहयोगी दलों को खुश रखने का माध्यम हैं, वहीं भाजपा के अपने कैडर को भी इससे संतुलित करने की बड़ी चुनौती है। पार्टी के सैकड़ों पुराने कार्यकर्ता, जो टिकट नहीं पा सके या चुनाव हार गए, वे भी इन पदों पर नज़र गड़ाए बैठे हैं। भाजपा संगठन ने पहले ही ऐसे कार्यकर्ताओं की सूची बनाकर केंद्रीय नेतृत्व को भेज दी थी। अब जब सहयोगी दलों को समायोजित करने की बात आई है, तो उस सूची में संशोधन किया जा रहा है।

दरअसल, भाजपा के लिए यह 'राजनीतिक संतुलन' साधने का समय है। पार्टी को यह भी ध्यान रखना है कि इन नियुक्तियों में सामाजिक समीकरण, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और संगठन की संतुलन नीति का पूरा ध्यान रखा जाए। यही कारण है कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने सभी बोर्डों और आयोगों में रिक्त पदों की सूची तलब कर ली है और जुलाई के पहले सप्ताह से नियुक्तियां शुरू होने की संभावना है।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा इन नियुक्तियों के ज़रिए तीन लक्ष्य एकसाथ साधना चाहती है सहयोगियों को सत्ता में हिस्सेदारी देकर संतुष्ट करना, अपने कैडर को सम्मान देकर संगठन में ऊर्जा बनाए रखना और विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन स्थापित कर आगामी चुनावों के लिए जमीन तैयार करना।इस पूरी रणनीति में खास बात यह है कि भाजपा ने कोई बड़ा सार्वजनिक बयान नहीं दिया है। सब कुछ पर्दे के पीछे तय किया जा रहा है ताकि मीडिया में 'दबाव की राजनीति' का संदेश न जाए। यही भाजपा की रणनीतिक चतुराई है जहां वह अपने सहयोगियों को भी सम्मान देती है और अपनी निर्णय प्रक्रिया को भी नियंत्रित रखती है।

वर्तमान में महिला आयोग, बाल आयोग, गोसेवा आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, खाद्य आयोग समेत करीब दो दर्जन से अधिक बोर्डों में अध्यक्ष और सदस्य पद खाली हैं। इन पदों की नियुक्तियों को सिर्फ प्रशासनिक प्रक्रिया न मानकर अब एक 'राजनीतिक औजार' के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। भाजपा की योजना है कि जो नेता लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं पा सके या हार गए, उन्हें इन पदों के ज़रिए संतुलित किया जाए ताकि असंतोष का माहौल न बने। कुल मिलाकर भाजपा ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वह गठबंधन की राजनीति को केवल सत्ता तक सीमित नहीं रखती, बल्कि उसमें भागीदारी और सम्मान का समावेश भी करती है बशर्ते कि दल भाजपा की केंद्रीय नीति और अनुशासन का पालन करें। 2027 की वैतरणी पार करने के लिए भाजपा ने अभी से जो कदम बढ़ाए हैं, वे बताते हैं कि चुनावी राजनीति में सामंजस्य और संतुलन ही असली मंत्र हैं।

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