आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी



                                आंकड़ों की सरकारी                                         
                                                                                                     हिमांशु. एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के कार्यकाल में आधिकारिक सांख्यिकीय प्रणाली की गुणवत्ता और विश्वसनीयता संदेह के घेरे में रही है। कृषि संबंधी डाटा सहित ज्यादातर चीजों के मामले में ऐसा ही हुआ है। राष्ट्रीय खातों और माइक्रो-इकोनॉमिक्स समुच्चय के साथ भी ऐसा ही हुआ है। इसका एक उदाहरण यह दिया जाता है कि राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय का रोजगार-बेरोजगारी संबंधी डाटा रोक दिया गया है। अब कमोबेश तय है कि यह रिपोर्ट आम चुनाव से पहले जारी नहीं की जाएगी। जहां रोजगार में कमी और बेरोजगारी के विस्तार पर कुछ विचार हुआ है, वहीं गरीबी आकलन के मुद्दे को चुपचाप लगभग भुला सा दिया गया है। जहां निजी रूप से हुए सर्वेक्षणों के आधार पर रोजगार सृजन को लेकर खूब बहस हुई, वहीं इस पर कोई बहस नहीं हुई कि वर्ष 2011-12 के बाद गरीबी का क्या हुआ? .
गरीबी की सूचना दो मुद्दों, रोजगार में कमी और कृषि संकट से जुड़ी हुई है। हालांकि रोजगार-बेरोजगारी रिपोर्ट की तरह ही उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण रिपोर्ट का भी चुनाव के खत्म होने तक जारी होना संभव नहीं लगता। इसका सीधा अर्थ है, यह पहली सरकार है, जो बिना इस सूचना के चुनाव में जा रही है कि उसके कार्यकाल में गरीबी का क्या हुआ? गरीबी का आकलन केवल अकादमिक कारणों से जरूरी नहीं है। यह विमुद्रीकरण और सरकार की आर्थिक नीतियों के असर को जानने के लिए भी महत्वपूर्ण है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को समझने के लिए भी यह आकलन उपयोगी रहता है, पर पिछली रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया गया। 
यूपीए सरकार के समय सुरेश तेंदुलकर समिति के आकलन पर हुए विवाद के बाद ही सी रंगराजन के नेतृत्व में गरीबी आकलन के लिए समिति गठित की गई थी। एनडीए सरकार के सत्ता संभालने के तुरंत बाद रंगराजन समिति ने जुलाई 2014 में अपनी रिपोर्ट दी, लेकिन इस बारे में कोई सूचना नहीं है कि सरकार ने उस रिपोर्ट को स्वीकार किया या नकार दिया। अत: तेंदुलकर समिति की वर्ष 2011-12 के लिए जारी गरीबी संबंधी रिपोर्ट ही अभी तक गरीबी का प्रचलित आकलन या अनुमान है। इसका एक नतीजा है, आज तमाम ग्रामीण विकास कार्यक्रम और वित्तीय हस्तांतरण गरीबी के पुराने आंकड़ों के आधार पर चल रहे हैं। उपभोक्ता व्यय सर्वे केवल गरीबी के आकलन के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह आर्थिक असमानता के आकलन का भी अकेला डाटा आधार है। जहां रोजगार और बेरोजगारी के आकलन के लिए लेबर ब्यूरो सर्वे और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी का डाटा आधार मौजूद है, वहीं उपभोक्ता व्यय सर्वे के लिए कोई विकल्प नहीं है। .
रंगराजन समिति और व्यय सर्वे को स्वीकार करने में सरकार की अनिच्छा की वजह स्वाभाविक है। रोजगार और बेरोजगारी के सर्वे की तरह ही दूसरे आंकड़े भी स्पष्ट इशारा करते हैं कि गरीबी निवारण में इस बार रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। जब आकलन का कोई सीधा माध्यम उपलब्ध नहीं है, तब ग्रामीण गरीबी के स्तर के आकलन के लिए किसानों की आय और ग्रामीण मजदूरी जैसे मौजूद स्रोत ही श्रेष्ठ हैं। यूपीए सरकार अपनी कमियों के बावजूद लाखों लोगों को गरीबी से निकाल पाई थी। उसके कार्यकाल में वास्तविक मजदूरी में सबसे तेज पांच प्रतिशत से ज्यादा की वार्षिक वृद्धि हुई थी। जब वर्तमान सरकार के दौर में वास्तविक मजदूरी घट रही है, तब यह बताया जा सकता है कि गरीबी भी ऊंची दर पर होगी या थोड़ी-बहुत ही कम हुई होगी। लेबर ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार, कृषि क्षेत्र में मजदूरी विकास दर घटकर 1.15 प्रतिशत और पांच साल में गैर-कृषि क्षेत्र में मजदूरी विकास दर घटकर 0.44 प्रतिशत हो गई है। बुरी खबर देने के भय से सरकार ने गरीबी के आंकड़े जारी नहीं किए हैं। हालांकि इसमें कुछ भी नया नहीं है, ऐसा उन तमाम संकेतकों या मोर्चों पर होता रहा है, जहां प्रदर्शन संदेहास्पद है। गरीबी, असमानता, रोजगार के ठोस आंकड़ों के होने या न होने का राजनीतिक फायदा लेना संभव है, लेकिन इससे सांख्यिकीय व्यवस्था और उसकी स्वतंत्रता को जो नुकसान पहुंचेगा, उसकी भरपाई आसान नहीं होगी।.


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