संजय सक्सेना,लखनऊ
पूरे देश में होली के रंग एक जैसे दिखते हैं। क्या छोटा-क्या बड़ा,क्या अमीर-क्या गरीब सब एक रंग में रंग जाते हैं,। इन रंगों से इत्तर भी होली के कई रंग होते हैं। होली के रंग में पड़ते मन ‘हुड़दगी’ होने को मचलने लगता है। कहीं ठंडाई पिसी जाती है तो भांग खोंटी जाती है। ‘रंगीन’ पानी के शौकीन भी इस दिन अपने आप को सीमाओं में बांध नहीं पाते हैं। इसके अलावा कुछ ‘रंग’ घर की रसोई से भी महकते पकवानों और लजिज व्यंजनों के रूप में भी निकलते हैं। होली का दिन खाने के शौकीनों को भी खूब रास आता है। होली के रंगों में कुछ जातीय विशेषताएं भी घुली रहती हैं। नजाकत और नफासत के शहर लखनऊ की होली का अपना मिजाज है। इस हुड़दंग में कुछ अलग परम्पराएं भी देखने को मिलती, जिसका सारा श्रेय यहां की कायस्थ बिरादरी को भी जाता है। कम लोग जानते होंगे कि मुस्लिम बिरादरी भले ही आमतौर पर होली के रंग से परहेज करती है,लेकिन एक हकीकत यह भी है कि लखनवी तहजीब की बुनियाद तो मुस्लिम समुदाय ने ही डाली थी इसके अलावा अगर किसी ने होली की रंगत बरकरार रखी है तो वह लखनऊ की कायस्थ बिरादरी ही है, तो इस परम्परा को आगे बढ़ाने में लखनऊ के ब्राह्मणों का भी विशेष योगदान रहा है।
रंग तो अमूमन सभी हिंदू खेलते हैं, लेकिन खानपान सबका अलग-अलग ही होता है। लखनऊ के पुराने कायस्थों को तो आधा मुसलमान ही माना जाता था क्योंकि गोश्त-शराब उनकी दिनचर्या में शामिल रहा है। होली हो और गोश्त न बने तो कैसा कायस्थ? और यह भी नहीं कि सिर्फ गोश्त ही बने, कलेजी भुनी हुई न हो तो शराब हलक के नीचे उतरे कैसे। इसलिए कलेजी तो जरूरत की चीज समझी जाती थी होली में। हरी मटर फागुन में बहुतायत से और सस्ती मिलती है। कीमा मटर बहुत पसंद किया जाता रहा है। इसी को जब सूखा यानी बगैर शोरबे के बनाते हैं तो उसे दुलमा कहा जाता है। यहां यह भी ध्यान रहे कि 1950 के दशक में न गैस के चूल्हे थे और न ही कुकर। कायस्थों के घर में ये सब मांसाहारी व्यंजन पकाने और बनाने में खासा वक्त और मेहनत लगती थी। इसका श्रेय निश्चित रूप से महिलाओं को ही दिया जाता है और दिया भी जाना चाहिए। आज भी जब कायस्थों के यहां शादियां तय होती हैं तो पहली बात यही पूछी जाती है कि लड़की शाकाहारी है कि मांसाहारी। अगर शाकाहारी है तो क्या मांस से परहेज तो नहीं है? यानी कि घर में बने तो वह घिनाएगी तो नहीं। कायस्थों के यहां एडजस्टमेंट की काफी गुंजाइश रहती है। मेरे पिता मांसाहारी,लेकिन पिता शाकाहारी है। एक ही रसोई में शाकाहारी और माॅसाहारी दोनों व्यंजन बनते हैं। अनेक कायस्थ परिवारों में यह चीज देखने को मिल जाती है। कोई गोश्त-शराब का शौकीन है तो कोई परहेज गार है। लेकिन परिवार तो परिवार है, खान-पान के सबब से हरगिज नहीं टूटेगा।
गोश्त-शराब का जिक्र पहले हो चुका है। यहां सिर्फ यह बताना जरूरी है कि बहुत से वैश्य और ब्राह्मण घरों में मांसाहारी व्यंजन बनाना तो दूसर खाना भी निषिद्ध माना जाता है। लेकिन इनकी युवा पीढ़ी की जुबान नाॅनवेज के नाम से लार टपकाने लगती है। सो ऐसे युवातुर्क होली में कायस्थों के घर जरूर पहुंचते हैं जहां उनकी पसंद का नाॅनवेज जरूर मिल जाता है। उन्हें पता होता था कि किन-किन घरों में मांसाहार जरूर बना होगा। कायस्थों को खुद खाने के अलावा खिलाने का भी शौक रहा है, इसलिए उनके घरों में हमेशा ही उनका स्वागत होता आया है। आओ भाई, लो पीयो और खाओ। दुलमा तो चख के देखो ही।
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