इटावा से उठी चिंगारी अब ‘धर्म’ की राजनीति की लपटों में



इटावा से उठी चिंगारी अब ‘धर्म’ की राजनीति की लपटों में

संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एक छोटे से गांव में कथावाचकों के साथ हुई बदसलूकी की घटना ने प्रदेश की राजनीति को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां सियासत का रास्ता अब ‘धर्म’ के चौराहे से होकर गुजरता दिख रहा है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस प्रकरण को सिर्फ जातीय अन्याय की घटना नहीं माना, बल्कि उन्होंने इसे भाजपा की सामाजिक रणनीति के खिलाफ एक नया मोर्चा बना दिया है। जब अखिलेश ने लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री पर “अंडर टेबल फीस” लेने का आरोप लगाया, तो यह बयान न केवल सनसनीखेज था, बल्कि सियासी रूप से बेहद सधे हुए संकेत लिए हुए था। यह बयान उन पिछड़े वर्गों के बीच सीधा संवाद स्थापित करता है जो परंपरागत तौर पर धार्मिक वर्चस्व की राजनीति से खुद को बाहर महसूस करते आए हैं।

इटावा कांड के बहाने अखिलेश यादव ने एक बार फिर उस 'PDA' (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) राजनीति को तेज किया है, जिसकी नींव उन्होंने 2022 विधानसभा चुनाव के दौरान रखी थी। कथावाचकों मुकुट मणि यादव और संत कुमार यादव को लखनऊ बुलाकर न सिर्फ सम्मानित करना, बल्कि 51 हजार की आर्थिक मदद और हारमोनियम देना  ये सब प्रतीकात्मक कदम नहीं थे, बल्कि PDA वर्ग के साथ भावनात्मक जुड़ाव पैदा करने की रणनीति थी।इस घटना को सोशल मीडिया पर तेज़ी से फैलाना, 'अहीर रेजिमेंट' जैसे जातीय संगठन का समर्थन दिलाना और पूरे मुद्दे को ‘ब्राह्मण बनाम पिछड़ा’ के फ्रेम में रखना, सपा की सामाजिक ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा है।

अखिलेश यादव का धीरेंद्र शास्त्री पर अंडर टेबल फीस लेने का आरोप सामान्य आरोप नहीं है। दरअसल, यह कथावाचकों के पूंजीकरण और धर्म के बाज़ारवाद पर सपा का हमला है। जब वे कहते हैं, “कोई गरीब आदमी कथा करा सकता है क्या?”, तो यह सीधे-सीधे इस बात की आलोचना है कि धार्मिक कर्मकांड अब केवल अमीरों के लिए आरक्षित हो गए हैं।यह बयान उस वर्ग के भीतर गूंजता है जो खुद को ब्राह्मणिक परंपरा और धर्म के ठेकेदारों से वंचित महसूस करता है। यही वह भावनात्मक असंतोष है जिसे सपा भुनाना चाहती है खासकर तब, जब भाजपा धीरेंद्र शास्त्री जैसे संतों के जरिए हिंदू समाज में ‘एकता’ का संदेश देने की कोशिश कर रही है।

इटावा कांड में कथावाचक यादव समुदाय से हैं और जिन पर आरोप लगे वे कथित रूप से ब्राह्मण समुदाय के हैं। इस घटना को जिस तरह सपा ने राजनीतिक रंग दिया है, उससे यह स्पष्ट है कि पार्टी पुराने ब्राह्मण-यादव तनाव को फिर से चुनावी हथियार बनाना चाहती है।पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने ब्राह्मणों को साधने की पूरी कोशिश की है, लेकिन यादव समुदाय पारंपरिक रूप से सपा का मजबूत आधार रहा है। अब यदि अखिलेश ब्राह्मणों के धार्मिक प्रतिनिधियों पर सवाल उठाकर यादवों की पीड़ित भावनाओं को उभारते हैं, तो यह उनकी जातीय गोलबंदी को और मजबूत करेगा।

बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री इस पूरे विवाद पर चुप हैं, लेकिन उनकी चुप्पी भाजपा के लिए असहज बनती जा रही है। एक ओर भाजपा उन्हें सांस्कृतिक नवजागरण का प्रतीक मानती है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष उन्हें “धर्म का दलाल” साबित करने पर तुला है।यदि धीरेंद्र शास्त्री जवाब देते हैं, तो विवाद और गहराएगा, और यदि वे चुप रहते हैं, तो विपक्ष के आरोप अनुत्तरित रहेंगे। भाजपा के लिए यह स्थिति जटिल है वह धीरेंद्र को नाराज़ भी नहीं कर सकती, और खुलकर बचाव भी नहीं कर सकती।यह पहला मौका है जब कथावाचन, जिसे अब तक एक विशुद्ध धार्मिक कार्य माना जाता था, उसे जातीय पहचान और आर्थिक विशेषाधिकार के चश्मे से देखा जा रहा है। अखिलेश ने जो विमर्श खड़ा किया है  कि “धार्मिक कथाएं अब जाति और पैसे की मोहताज हो गई हैं”  वह धर्म के राजनीतिक और आर्थिक पक्ष पर नई बहस शुरू करता है।यह विमर्श खासकर उस युवा पिछड़े वर्ग के बीच असर करेगा जो सोशल मीडिया पर धर्म और राजनीति की आलोचना करने में अब हिचकता नहीं।

अब सवाल यह है कि भाजपा इस पूरे मामले पर क्या रुख अपनाएगी। अब तक उसकी प्रतिक्रिया सीमित और रक्षात्मक रही है। कुछ मंत्री कह रहे हैं कि “अखिलेश मामले को जातीय रंग दे रहे हैं”, लेकिन पार्टी ने यह नहीं बताया कि कथावाचकों के साथ हुई घटना को गंभीरता से क्यों नहीं लिया गया?अगर भाजपा इसे महज कानून-व्यवस्था का मामला मानकर छोड़ देगी, तो वह सामाजिक आधार खिसका सकती है। उसे यह समझना होगा कि यह एक सांस्कृतिक युद्ध है जिसमें विपक्ष ने 'धर्म बनाम जाति' का मोर्चा खोल दिया है।

इटावा कांड, धीरेंद्र शास्त्री पर अखिलेश का हमला, कथावाचन की फीस, ब्राह्मण-यादव तनाव ये सभी घटनाएं केवल अलग-अलग खबरें नहीं हैं। ये दरअसल एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक रणनीति की परतें हैं, जिन्हें सपा ने बड़ी कुशलता से बुना है।अब देखना यह होगा कि भाजपा अपने धार्मिक और ब्राह्मणिक चेहरे को कैसे संभालती है, और सपा PDA वोट को कितनी मजबूती से साध पाती है। लेकिन यह तय है कि यह विवाद 2027 विधानसभा चुनाव से पहले एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरेगा, और शायद राजनीतिक कथावाचन की अगली पटकथा भी इसी से लिखी जाएगी।

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